Sunday, August 21, 2011

विधि के अन्तरों के लिए धर्मसिन्धु में आया है कि शूद्रों को वैदिक मंत्र छोड़ देने चाहिए, किन्तु वे पौराणिक मंत्रों एवं गानों का सम्पादन कर सकते हैं। 'समयमयूख' एवं 'तिथितत्व' में वैदिक मंत्रों के प्रयोग का स्पष्ट संकेत नहीं मिलता।

मध्यकालिक निबन्धों में जन्माष्टमी व्रत के प्रमुख उद्देश्य के विषय में चर्चा उठायी गयी है। कुछ लोगों के मत से उपवास एवं पूजा दोनों ही प्रमुख हैं  ।
समयमयूख ने व्याख्या के उपरान्त निष्कर्ष निकाला है कि उपवास केवल 'अंग' है, किन्तु पूजा ही प्रमुख है। किन्तु तिथितत्व ने भविष्य पुराण एवं मीमांसा सिद्धान्तों के आधार पर कहा है कि उपवास ही प्रमुख है और पूजा केवल 'अंग' अर्थात केवल सहायक तत्त्व है।

पारण
प्रत्येक व्रत के अन्त में पारण होता है, जो व्रत के दूसरे दिन प्रात: किया जाता है। जन्माष्टमी एवं जयन्ती के उपलक्ष्य में किये गये उपवास के उपरान्त पारण के विषय में कुछ विशिष्ट नियम हैं। ब्रह्मवैवर्त पुराण, कालनिर्णय  में आया है कि–'जब तक अष्टमी चलती रहे या उस पर रोहिणी नक्षत्र रहे तब तक पारण नहीं करना चाहिए; जो ऐसा नहीं करता, अर्थात जो ऐसी स्थिति में पारण कर लेता है वह अपने किये कराये पर ही पानी फेर लेता है और उपवास से प्राप्त फल को नष्ट कर लेता है। अत: तिथि तथा नक्षत्र के अन्त में ही पारण करना चाहिए।

उद्यापन एवं पारण में अंतर
पारण के उपरान्त व्रती 'ओं भूताय भूतेश्वराय भूतपतये भूतसम्भवाय गोविन्दाय नमो नम:' नामक मंत्र का पाठ करता है। कुछ परिस्थितियों में पारण रात्रि में भी होता है, विशेषत: वैष्णवों में, जो व्रत को नित्य रूप में करते हैं न कि काम्य रूप में। 'उद्यापन एवं पारण' के अर्थों में अन्तर है। एकादशी एवं जन्माष्टमी जैसे व्रत जीवन भर किये जाते हैं। उनमें जब कभी व्रत किया जाता है तो पारण होता है, किन्तु जब कोई व्रत केवल एक सीमित काल तक ही करता है और उसे समाप्त कर लेता है तो उसकी परिसमाप्ति का अन्तिम कृत्य है उद्यापन।

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