Sunday, August 21, 2011

|| श्री कृष्ण शरणं मम ||
 

"जीवन सार्थक करने का पावन पर्व श्री कृष्ण जन्माष्टमी "

हरे कृष्ण ! हरे कृष्ण ! कृष्ण ! कृष्ण ! हरे हरे ! हरे राम ! हरे राम ! राम ! राम ! हरे हरे !

जब भी असुरों के अत्याचार बढ़े हैं और धर्म का पतन हुआ है तब-तब भगवान ने पृथ्वी पर अवतार लेकर सत्य और धर्म की स्थापना की है। इसी कड़ी में

भाद्रपद माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मध्यरात्रि केअवजित मुहूर्त में अत्याचारी कंस का विनाश करने के लिए मथुरा में भगवान कृष्ण ने अवतार लिया

। एक ऐसा अवतार जिसके दर्शन मात्र से प्राणियो के, घट घट के संताप, दुःख, पाप मिट जाते है | जिन्होंने इस श्रृष्टि को गीता का उपदेश दे कर उसका कल्याण किया, जिसने अर्जुन को कर्म का सिद्धांत पढाया, यह उनका जन्मोत्सव है |

हमारे वेदों में चार रात्रियों का विशेष महातव्य बताया गया है दीपावली जिसे कालरात्रि कहते है,शिवरात्रि महारात्रि है,श्री कृष्ण जन्माष्टमी मोहरात्रि और होली अहोरात्रि है| जिनके जन्म के सैंयोग मात्र से बंदी गृह के सभी बंधन स्वत: ही खुल गए, सभी पहरेदार घोर निद्रा में चले गए, माँ यमुना जिनके चरण स्पर्श करने को आतुर हो उठी, उस भगवान श्री कृष्ण को सम्पूर्ण श्रृष्टि को मोह लेने वाला अवतार माना गया है | इसी कारण वश जन्माष्टमी की रात्रि को मोहरात्रि कहा गया है। | इस रात में योगेश्वर श्रीकृष्ण का ध्यान, नाम अथवा मंत्र जपते हुए जगने से संसार की मोह-माया से आसक्ति हटती है। जन्माष्टमी का व्रत "व्रतराज" कहा गया है। इसके सविधि पालन से प्राणी अनेक व्रतों से प्राप्त होने वाली महान पुण्य राशि प्राप्त कर सकते है |

योगेश्वर कृष्ण के भगवद गीता के उपदेश अनादि काल से जनमानस के लिए जीवन दर्शन प्रस्तुत करते रहे हैं। जन्माष्टमी भारत में हीं नहीं बल्कि विदेशों में बसे भारतीय भी पूरी आस्था व उल्लास से मनाते हैं। ब्रजमंडल में श्री कृष्णाष्टमी "नंद-महोत्सव" अर्थात् "दधिकांदौ श्रीकृष्ण" के जन्म उत्सव का दृश्य बड़ा ही दुर्लभ होता है | भगवान के श्रीविग्रह पर हल्दी, दही, घी, तेल, गुलाबजल, मक्खन, केसर, कपूर आदि चढा ब्रजवासी उसका परस्पर लेपन और छिडकाव करते हैं तथा छप्पन भोग का महाभोग लगते है। वाद्ययंत्रों से मंगल ध्वनि बजाई जाती है। जगद्गुरु श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव नि:संदेह सम्पूर्ण विश्व के लिए आनंद-मंगल का संदेश देता है। सम्पूर्ण ब्रजमंडल "नन्द के आनंद भयो - जय कन्हैय्या लाल की" जैसे जयघोषो व बधाइयो से गुंजायमान होता है|

व्रत महात्यम:-

भविष्य पुराण के जन्माष्टमी व्रत-माहात्म्य में यह कहा गया है कि जिस राष्ट्र या प्रदेश में यह व्रतोत्सव किया जाता है, वहां पर प्राकृतिक प्रकोप या महामारी का ताण्डव नहीं होता। मेघ पर्याप्त वर्षा करते हैं तथा फसल खूब होती है। जनता सुख-समृद्धि प्राप्त करती है। इस व्रतराज के अनुष्ठान से सभी को परम श्रेय की प्राप्ति होती है। व्रतकर्ता भगवत्कृपा का भागी बनकर इस लोक में सब सुख भोगता है और अन्त में वैकुंठ जाता है। कृष्णाष्टमी का व्रत करने वाले के सब क्लेश दूर हो जाते हैं।दुख-दरिद्रता से उद्धार होता है। गृहस्थों को पूर्वोक्त द्वादशाक्षर मंत्र से दूसरे दिन प्रात:हवन करके व्रत का पारण करना चाहिए। जिन भी लोगो को संतान न हो, वंश वृद्धि न हो, पितृ दोष से पीड़ित हो, जन्मकुंडली में कई सारे दुर्गुण, दुर्योग हो, शास्त्रों के अनुसार इस व्रत को पूर्ण निष्ठा से करने वाले को एक सुयोग्य,संस्कारी,दिव्य संतान की प्राप्ति होती है, कुंडली के सारे दुर्भाग्य सौभाग्य में बदल जाते है और उनके पितरो को नारायण स्वयं अपने हाथो से जल दे के मुक्तिधाम प्रदान करते है | स्कन्द पुराण के मतानुसार जो भी व्यक्ति जानकर भी कृष्ण जन्माष्टमी व्रत को नहीं करता, वह मनुष्य जंगल में सर्प और व्याघ्र होता है। ब्रह्मपुराण का कथन है कि कलियुग में भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी में अट्ठाइसवें युग में देवकी के पुत्र श्रीकृष्ण उत्पन्न हुए थे। यदि दिन या रात में कलामात्र भी रोहिणी न हो तो विशेषकर चंद्रमा से मिली हुई रात्रि में इस व्रत को करें। भविष्य पुराण का वचन है- श्रावण मास के शुक्ल पक्ष में कृष्ण जन्माष्टमी व्रत को जो मनुष्य नहीं करता, वह क्रूर राक्षस होता है। केवल अष्टमी तिथि में ही उपवास करना कहा गया है। जिन परिवारों में कलह-क्लेश के कारण अशांति का वातावरण हो, वहां घर के लोग जन्माष्टमी का व्रत करने के साथ निम्न किसी भी मंत्र का अधिकाधिक जप करें-

"ॐ नमो नारायनाय "

आथवा

" सिद्धार्थ: सिद्ध संकल्प: सिद्धिद सिद्धि: साधन:"

आथवा

"ॐ नमों भगवते वासुदेवाय"

या

"श्री कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने।प्रणत: क्लेश नाशाय गोविन्दाय नमो नम:"॥

आथवा

"श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारी हे नाथ नारायण वासुदेवाय" ||

उपर्युक्त मंत्र में से किसी का भी का जाप करते हुए सच्चिदानंदघन श्रीकृष्ण की आराधना करें। इससे परिवार में व कुटुंब में व्याप्त तनाव, समस्त प्रकार की समस्या, विषाद, विवाद और विघटन दूर होगा खुशियां घर में वापस लौट आएंगी। गौतमी तंत्र में यह निर्देश है- प्रकर्तव्योन भोक्तव्यं कदाचन।कृष्ण जन्मदिने यस्तु भुड्क्ते सतुनराधम:। निवसेन्नर केघोरे यावदाभूत सम्प्लवम्॥अर्थात- अमीर-गरीब सभी लोग यथाशक्ति-यथासंभव उपचारों से योगेश्वर कृष्ण का जन्मोत्सव मनाएं। जब तक उत्सव सम्पन्न न हो जाए तब तक भोजन कदापि न करें। जो वैष्णव कृष्णाष्टमी के दिन भोजन करता है, वह निश्चय ही नराधम है। उसे प्रलय होने तक घोर नरक में रहना पडता है।

अष्टमी दो प्रकार की है- पहली जन्माष्टमी और दूसरी जयंती। इसमें केवल पहली अष्टमी है। यदि वही तिथि रोहिणी नक्षत्र से युक्त हो तो 'जयंती' नाम से संबोधित की जाएगी। वह्निपुराण का वचन है कि कृष्णपक्ष की जन्माष्टमी में यदि एक कला भी रोहिणी नक्षत्र हो तो उसको जयंती नाम से ही संबोधित किया जाएगा। अतः उसमें प्रयत्न से उपवास करना चाहिए। विष्णुरहस्यादि वचन से- कृष्णपक्ष की अष्टमी रोहिणी नक्षत्र से युक्त भाद्रपद मास में हो तो वह जयंती नाम वाली ही कही जाएगी। वसिष्ठ संहिता का मत है- यदि अष्टमी तथा रोहिणी इन दोनों का योग अहोरात्र में असम्पूर्ण भी हो तो मुहूर्त मात्र में भी अहोरात्र के योग में उपवास करना चाहिए। मदन रत्न में स्कन्द पुराण का वचन है कि जो उत्तम पुरुष है वे निश्चित रूप से जन्माष्टमी व्रत को इस लोक में करते हैं। उनके पास सदैव स्थिर लक्ष्मी होती है। इस व्रत के करने के प्रभाव से उनके समस्त कार्य सिद्ध होते हैं। विष्णु धर्म के अनुसार आधी रात के समय रोहिणी में जब कृष्णाष्टमी हो तो उसमें कृष्ण का अर्चन और पूजन करने से तीन जन्मों के पापों का नाश होता है। भृगु ने कहा है- जन्माष्टमी, रोहिणी और शिवरात्रि ये पूर्वविद्धा ही करनी चाहिए तथा तिथि एवं नक्षत्र के अन्त में पारणा करें। इसमें केवल रोहिणी उपवास भी सिद्ध है।

व्रत-पूजन कैसे करेंश्री कृष्ण जन्माष्टमी का व्रत सनातन-धर्मावलंबियों के लिए अनिवार्य माना गया है। साधारणतया इस व्रतके विषय में दो मत हैं । स्मार्त लोग अर्धरात्रि स्पर्श होनेपर या रोहिणी नक्षत्र का योग होने पर सप्तमी सहित अष्टमी में भी उपवास करते हैं , किन्तु वैष्णव लोग सप्तमी का किन्चिन मात्र स्पर्श होनेपर द्वितीय दिवस ही उपवास करते हैं । वैष्णवों में उदयाव्यपिनी अष्टमी एवं रोहिणी नक्षत्र को ही मान्यता एवं प्रधानता दी जाती हैं | उपवास की पूर्व रात्रि को हल्का भोजन करें और ब्रह्मचर्य का पालन करें। उपवास के दिन प्रातःकाल स्नानादि नित्यकर्मों से निवृत्त हो जाएँ। पश्चात सूर्य, सोम, यम, काल, संधि, भूत, पवन, दिक्‌पति, भूमि, आकाश, खेचर, अमर और ब्रह्मादि को नमस्कार कर पूर्व या उत्तर मुख बैठें। इसके बाद जल, फल, कुश, द्रव्य दक्षिणा और गंध लेकर संकल्प करें-

ॐविष्णुíवष्णुíवष्णु:अद्य शर्वरी नाम संवत्सरे सूर्ये दक्षिणायने वर्षतरै भाद्रपद मासे कृष्णपक्षे श्रीकृष्ण जन्माष्टम्यां तिथौ भौम वासरे अमुकनामाहं(अमुक की जगह अपना नाम बोलें) मम चतुर्वर्ग सिद्धि द्वारा श्रीकृष्ण देवप्रीतये जन्माष्टमी व्रताङ्गत्वेन श्रीकृष्ण देवस्य यथामिलितोपचारै:पूजनं करिष्ये।

यदि उक्त मंत्र का प्रयोग व उच्चारण कठिन प्रतीत हो तो निम्न मंत्र का प्रयोग भी कर सकते है

ममखिलपापप्रशमनपूर्वक सर्वाभीष्ट सिद्धयेश्रीकृष्ण जन्माष्टमी व्रतमहं करिष्ये॥

स्तुति:-

कस्तुरी तिलकम ललाटपटले, वक्षस्थले कौस्तुभम । नासाग्रे वरमौक्तिकम करतले, वेणु करे कंकणम । सर्वांगे हरिचन्दनम सुरलितम, कंठे च मुक्तावलि । गोपस्त्री परिवेश्तिथो विजयते, गोपाल चूडामणी ॥यदि संभव हो तो मध्याह्न के समय काले तिलों के जल से स्नान कर देवकीजी के लिए 'सूतिकागृह' नियत करें।

तत्पश्चात भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति या चित्र स्थापित करें। मूर्ति में बालक श्रीकृष्ण को स्तनपान कराती हुई देवकी हों और लक्ष्मी जी उनके चरण स्पर्श किए हों अथवा ऐसे भाव हो। इसके बाद विधि-विधान से पूजन करें। पूजन में देवकी, वसुदेव, बलदेव, नंद, यशोदा और लक्ष्मी इन सबका नाम क्रमशः निर्दिष्ट करना चाहिए। अर्धरात्रि के समय शंख तथा घंटों के निनाद से श्रीकृष्ण जन्मोत्सव सम्पादित करे तदोपरांत श्रीविग्रह का षोडशोपचार विधि से पूजन करे |

निम्न मंत्र से पुष्पांजलि अर्पण करें-'प्रणमे देव जननी त्वया जातस्तु वामनः। वसुदेवात तथा कृष्णो नमस्तुभ्यं नमो नमः। सुपुत्रार्घ्यं प्रदत्तं में गृहाणेमं नमोऽस्तु ते।'

उसके पश्चात सभी परिजनों में प्रसाद वितरण कर सपरिवार अन्न भोजन ग्रहण करे और यदि संभव हो तो रात्रि जागरण करना विशेष लाभ प्रद सिद्ध होता है जो किसी भी जीव की सम्पूर्ण मनोकामना पूर्ति करता है |इसके आलावा कृष्ण जन्म के समय "राम चरित मानस" के"बालकांड" में "रामजन्म प्रसंग" का पाठ आथवा "विष्णु सहस्त्रनाम" , "पुरुष सूक्त" का पाठ भी सर्वस्य सिद्दी व सभी मनोरथ पूर्ण करने वाला है |

आज के दिन "संतान गोपाल मंत्र", के जाप व "हरिवंश पुराण", "गीता" के पाठ का भी बड़ा ही महत्व्य है |यह तिथि तंत्र साधको के लिए भी बहु प्रतीक्षित होती है, इस तिथि में "सम्मोहन" के प्रयोग सबसे ज्यादा सिद्ध किये जाते है | यदि कोई सगा सम्बन्धी रूठ जाये, नाराज़ हो जाये, सम्बन्ध विच्छेद हो जाये,घर से भाग जाये, खो जाये तो इस दिन उन्हें वापिस बुलाने का प्रयोग अथवा बिगड़े संबंधो को मधुर करने का प्रयोग भी खूब किया जाता है |

|| श्री कृष्ण शरणं मम ||

कृष्ण जन्माष्टमी / Krishna Janmashtami

भगवान श्रीकृष्ण के जन्मोत्सव का दिन बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। कृष्ण जन्मभूमि पर देश–विदेश से लाखों श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ती हें और पूरे दिन व्रत रखकर नर-नारी तथा बच्चे रात्रि 12 बजे मन्दिरों में अभिषेक होने पर पंचामृत ग्रहण कर व्रत खोलते हैं। कृष्ण जन्म स्थान के अलावा द्वारकाधीश, बिहारीजी एवं अन्य सभी मन्दिरों में इसका भव्य आयोजन होता हैं , जिनमें भारी भीड़ होती है।

भगवान श्रीकृष्ण का प्राकट्य उत्सव

माखनचोर कृष्ण
भगवान श्रीकृष्ण ही थे, जिन्होंने अर्जुन को कायरता से वीरता, विषाद से प्रसाद की ओर जाने का दिव्य संदेश श्रीमदभगवदगीता के माध्यम से दिया।
कालिया नाग के फन पर नृत्य किया, विदुराणी का साग खाया और गोवर्धन पर्वत को उठाकर गिरिधारी कहलाये।
समय पड़ने पर उन्होंने दुर्योधन की जंघा पर भीम से प्रहार करवाया, शिशुपाल की गालियाँ सुनी, पर क्रोध आने पर सुदर्शन चक्र भी उठाया।
अर्जुन के सारथी बनकर उन्होंने पाण्डवों को महाभारत के संग्राम में जीत दिलवायी।
सोलह कलाओं से पूर्ण वह भगवान श्रीकृष्ण ही थे, जिन्होंने मित्र धर्म के निर्वाह के लिए गरीब सुदामा के पोटली के कच्चे चावलों को खाया और बदले में उन्हें राज्य दिया।
उन्हीं परमदयालु प्रभु के जन्म उत्सव को जन्माष्टमी के रूप में मनाया जाता है।

अवतार

मुख्य लेख: कृष्ण एवं कृष्ण संदर्भ
भगवान श्रीकृष्ण विष्णुजी के आठवें अवतार माने जाते हैं। यह श्रीविष्णु का सोलह कलाओं से पूर्ण भव्यतम अवतार है। श्रीराम तो राजा दशरथ के यहाँ एक राजकुमार के रूप में अवतरित हुए थे, जबकि श्रीकृष्ण का प्राकट्य आततायी कंस के कारागार में हुआ था। श्रीकृष्ण का जन्म भाद्रपद कृष्ण अष्टमी की मध्यरात्रि को रोहिणी नक्षत्र में देवकी व श्रीवसुदेव के पुत्ररूप में हुआ था। कंस ने अपनी मृत्यु के भय से बहिन देवकी और वसुदेव को कारागार में क़ैद किया हुआ था।

कृष्ण जन्म के समय भगवानविष्णु
कृष्ण जन्म के समय घनघोर वर्षा हो रही थी। चारों तरफ़ घना अंधकार छाया हुआ था। श्रीकृष्ण का अवतरण होते ही वसुदेव–देवकी की बेड़ियाँ खुल गईं, कारागार के द्वार स्वयं ही खुल गए, पहरेदार गहरी निद्रा में सो गए। वसुदेव किसी तरह श्रीकृष्ण को उफनती यमुना के पार गोकुल में अपने मित्र नन्दगोप के घर ले गए। वहाँ पर नन्द की पत्नी यशोदा को भी एक कन्या उत्पन्न हुई थी। वसुदेव श्रीकृष्ण को यशोदा के पास सुलाकर उस कन्या को ले गए। कंस ने उस कन्या को पटककर मार डालना चाहा। किन्तु वह इस कार्य में असफल ही रहा। श्रीकृष्ण का लालन–पालन यशोदा व नन्द ने किया। बाल्यकाल में ही श्रीकृष्ण ने अपने मामा के द्वारा भेजे गए अनेक राक्षसों को मार डाला और उसके सभी कुप्रयासों को विफल कर दिया। अन्त में श्रीकृष्ण ने आतातायी कंस को ही मार दिया। श्रीकृष्ण के जन्मोत्सव का नाम ही जन्माष्टमी है। गोकुल में यह त्योहार 'गोकुलाष्टमी' के नाम से मनाया जाता है।
शास्त्रों के अनुसार
श्रावण (अमान्त) कृष्ण पक्ष की अष्टमी को कृष्ण जन्माष्टमी या जन्माष्टमी व्रत एवं उत्सव प्रचलित है, जो भारत में सर्वत्र मनाया जाता है और सभी व्रतों एवं उत्सवों में श्रेष्ठ माना जाता है। कुछ पुराणों में ऐसा आया है कि यह भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मनाया जाता है। इसकी व्याख्या इस प्रकार है कि 'पौराणक वचनों में मास पूर्णिमान्त है तथा इन मासों में कृष्ण पक्ष प्रथम पक्ष है।' पद्म पुराण   , मत्स्य पुराण  , अग्नि पुराण में कृष्ण जन्माष्टमी के माहात्म्य का विशिष्ट उल्लेख है।

छान्दोग्योपनिषद   में आया है कि कृष्ण देवकी पुत्र ने घोर आंगिर से शिक्षाएँ ग्रहण कीं। कृष्ण नाम के एक वैदिक कवि थे, जिन्होंने अश्विनों से प्रार्थना की है ।
अनुक्रमणी ने ऋग्वेद  को कृष्ण आंगिरस का माना है।

राधा-कृष्ण

जैन परम्पराओं में कृष्ण 22वें तीर्थकर नेमिनाथ के समकालीन माने गये हैं और जैनों के प्राक्-इतिहास के 63 महापुरुषों के विवरण में लगभग एक तिहाई भाग कृष्ण के सम्बन्ध में ही है।
महाभारत में कृष्ण जीवन भरपूर हैं। महाभारत में वे यादव राजकुमार कहे गये हैं, वे पाण्डवों के सबसे गहरे मित्र थे, बड़े भारी योद्धा थे, राजनीतिज्ञ एवं दार्शनिक थे। कतिपय स्थानों पर वे परमात्मा माने गये हैं और स्वयं विष्णु कहे गये हैं। महाभारत शान्ति पर्व  ; द्रोण पर्व  ; कर्ण पर्व  ; वन पर्व ; भीष्म पर्व  । युधिष्ठिर  , द्रौपदी एवंभीष्म   ने कृष्ण के विषय में प्रशंसा के गान किये हैं। हरिवंश, विष्णु, वायु, भागवत एवं ब्रह्मवैवर्त पुराण में कृष्ण लीलाओं का वर्णन है जो महाभारत में नहीं पाया जाता है।
पाणिनि  से प्रकट होता है कि इनके काल में कुछ लोग 'वासुदेवक' एवं 'अर्जुनक' भी थे, जिनका अर्थ है क्रम से वासुदेव एवं अर्जुन के भक्त।
पतंजलि के महाभाष्य के वार्तिकों में कृष्ण सम्बन्धी व्यक्तियों एवं घटनाओं की ओर संकेत है, यथा वार्तिक संहिता में कंस तथा बलि के नाम; वार्तिक संहिता  में 'गोविन्द'; एवं पाणिनी   के वार्तिक में वासुदेव एवं कृष्ण। पंतजलि में 'सत्यभामा' को 'भामा' भी कहा गया है। 'वासुदेववर्ग्य:' , ऋष्यन्धकवृष्णिकुरुभ्यश्च'  में, उग्रसेन को अंधककहा गया है एवं वासुदेव तथा बलदेव को विष्णु कहा गया है, आदि शब्द आये हैं।
अधिकांश विद्वानों ने पंतजलि को ई. पू. दूसरी शताब्दी का माना है। कृष्ण कथाएँ इसके बहुत पहले की हैं। आदि पर्व   एवं सभा पर्व  में कृष्ण को वासुदेव एवं परमब्रह्म एवं विश्व का मूल कहा गया है।


कृष्ण जन्मभूमि, मथुरा
ई. पू. दूसरी या पहली शताब्दी के घोसुण्डी अभिलेख   एवं इण्डियन ऐण्टीक्वेरी, में कृष्ण को 'भागवत एवं सर्वेश्वर' कहा गया है। यही बात नागाघाट अभिलेखों, ई. पू. 200 ई. में भी है। बेसनगर के 'गरुणध्वज' अभिलेख में वासुदेव को 'देव-देव' कहा गया है। ये प्रमाण सिद्ध करते हैं कि ई. पू. 500 के लगभग उत्तरी एवं मध्य भारत में वासुदेव की पूजा प्रचलित थी।
श्री आर. जी. भण्डारकर कृत 'वैष्णविज्म, शैविज्म' , जहाँ पर वैष्णव सम्प्रदाय एवं इसकी प्राचीनता के विषय में विवेचन उपस्थित किया गया है। यह आश्चर्यजनक है कि कृष्ण जन्माष्टमी पर लिखे गये मध्यकालीन ग्रन्थों में भविष्य, भविष्योत्तर, स्कन्द, विष्णुधर्मोत्तर, नारदीय एवं ब्रह्म वैवर्त पुराणों से उद्धरण तो लिये हैं, किन्तु उन्होंने उस भागवत पुराण को अछूता छोड़ रखा है जो पश्चात्कालीन मध्य एवं वर्तमानकालीन वैष्णवों का 'वेद' माना जाता है। भागवत में कृष्ण जन्म का विवरण संदिग्ध एवं साधारण है। वहाँ पर ऐसा आया है कि समय काल सर्वगुणसम्पन्न एवं शोभन था, दिशाएँ स्वच्छ एवं गगन निर्मल एवं उडुगण युक्त था, वायु सुखस्पर्शी एवं गंधवाही था और जब जनार्दन ने देवकी के गर्भ से जन्म लिया तो अर्धरात्रि थी तथा अन्धकार ने सबको ढक लिया था।


राधा-कृष्ण
भविष्योत्तर पुराण   में कृष्ण द्वारा 'कृष्णजन्माष्टमी व्रत' के बारे में युधिष्ठिर से स्वयं कहलाया गया है–'मैं वासुदेव एवं देवकी से भाद्र कृष्ण अष्टमी को उत्पन्न हुआ था, जबकि सूर्य सिंह राशि में था, चन्द्र वृषभ राशि में था और नक्षत्र रोहिणी था' । जब श्रावण के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को रोहिणी नक्षत्र होता है तो वह तिथि जयन्ती कहलाती है, उस दिन उपवास करने से सभी पाप जो बचपन, युवावस्था, वृद्धावस्था एवं बहुत से पूर्वजन्मों में हुए रहते हैं, कट जाते हैं। इसका फल यह है कि यदि श्रावण कृष्णपक्ष की अष्टमी को रोहिणी हो तो न यह केवल जन्माष्टमी होती है, किन्तु जब श्रावण की कृष्णाष्टमी से रोहिणी संयुक्त हो जाती है तो जयन्ती होती है।

जन्माष्टमी व्रत' एवं 'जयन्ती व्रत

'जन्माष्टमी व्रत' एवं 'जयन्ती व्रत' एक ही हैं या ये दो पृथक व्रत हैं। कालनिर्णय  ने दोनों को पृथक व्रत माना है, क्योंकि दो पृथक नाम आये हैं, दोनों के निमित्त (अवसर) पृथक हैं (प्रथम तो कृष्णपक्ष की अष्टमी है और दूसरी रोहिणी से संयुक्त कृष्णपक्ष की अष्टमी), दोनों की ही विशेषताएँ पृथक हैं, क्योंकि जन्माष्टमी व्रत में शास्त्र में उपवास की व्यवस्था दी है और जयन्ती व्रत में उपवास, दान आदि की व्यवस्था है। इसके अतिरिक्त जन्माष्टमी व्रत नित्य है (क्योंकि इसके न करने से केवल पाप लगने की बात कही गयी है) और जयन्ती व्रत नित्य एवं काम्य दोनों ही है, क्योंकि उसमें इसके न करने से न केवल पाप की व्यवस्था है प्रत्युत करने से फल की प्राप्ति की बात भी कही गयी है। एक ही श्लोक में दोनों के पृथक उल्लेख भी हैं। हेमाद्रि, मदनरत्न, निर्णयसिन्धु आदि ने दोनों को भिन्न माना है। निर्णयसिन्धु   ने यह भी कहा है कि इस काल में लोग जन्माष्टमी व्रत करते हैं न कि जयन्ती व्रत। किन्तु जयन्तीनिर्णय  का कथन है कि लोग जयन्ती मनाते हैं न कि जन्माष्टमी। सम्भवत: यह भेद उत्तर एवं दक्षिण भारत का है। वराह पुराण एवं हरिवंश में दो विरोधी बातें हैं। प्रथम के अनुसार कृष्ण का जन्म आषाढ़ शुक्ल द्वादशी को हुआ था। हरिवंश के अनुसार कृष्ण जन्म के समय अभिजित नक्षत्र था और विजय मुहूर्त था। सम्भवत: इन उक्तियों में प्राचीन परम्पराओं की छाप है। मध्यकालिक निबन्धों में जन्माष्टमी व्रत के सम्पादन की तिथि एवं काल के विषय में भी कुछ विवेचन मिलता है  ; कृत्यतत्व  ; तिथितत्व, । समयमयूख   एवं निर्णय सिंधु   में इस विषय में निष्कर्ष दिये गये हैं।