Sunday, August 21, 2011

राधा-कृष्ण

जैन परम्पराओं में कृष्ण 22वें तीर्थकर नेमिनाथ के समकालीन माने गये हैं और जैनों के प्राक्-इतिहास के 63 महापुरुषों के विवरण में लगभग एक तिहाई भाग कृष्ण के सम्बन्ध में ही है।
महाभारत में कृष्ण जीवन भरपूर हैं। महाभारत में वे यादव राजकुमार कहे गये हैं, वे पाण्डवों के सबसे गहरे मित्र थे, बड़े भारी योद्धा थे, राजनीतिज्ञ एवं दार्शनिक थे। कतिपय स्थानों पर वे परमात्मा माने गये हैं और स्वयं विष्णु कहे गये हैं। महाभारत शान्ति पर्व  ; द्रोण पर्व  ; कर्ण पर्व  ; वन पर्व ; भीष्म पर्व  । युधिष्ठिर  , द्रौपदी एवंभीष्म   ने कृष्ण के विषय में प्रशंसा के गान किये हैं। हरिवंश, विष्णु, वायु, भागवत एवं ब्रह्मवैवर्त पुराण में कृष्ण लीलाओं का वर्णन है जो महाभारत में नहीं पाया जाता है।
पाणिनि  से प्रकट होता है कि इनके काल में कुछ लोग 'वासुदेवक' एवं 'अर्जुनक' भी थे, जिनका अर्थ है क्रम से वासुदेव एवं अर्जुन के भक्त।
पतंजलि के महाभाष्य के वार्तिकों में कृष्ण सम्बन्धी व्यक्तियों एवं घटनाओं की ओर संकेत है, यथा वार्तिक संहिता में कंस तथा बलि के नाम; वार्तिक संहिता  में 'गोविन्द'; एवं पाणिनी   के वार्तिक में वासुदेव एवं कृष्ण। पंतजलि में 'सत्यभामा' को 'भामा' भी कहा गया है। 'वासुदेववर्ग्य:' , ऋष्यन्धकवृष्णिकुरुभ्यश्च'  में, उग्रसेन को अंधककहा गया है एवं वासुदेव तथा बलदेव को विष्णु कहा गया है, आदि शब्द आये हैं।
अधिकांश विद्वानों ने पंतजलि को ई. पू. दूसरी शताब्दी का माना है। कृष्ण कथाएँ इसके बहुत पहले की हैं। आदि पर्व   एवं सभा पर्व  में कृष्ण को वासुदेव एवं परमब्रह्म एवं विश्व का मूल कहा गया है।


कृष्ण जन्मभूमि, मथुरा
ई. पू. दूसरी या पहली शताब्दी के घोसुण्डी अभिलेख   एवं इण्डियन ऐण्टीक्वेरी, में कृष्ण को 'भागवत एवं सर्वेश्वर' कहा गया है। यही बात नागाघाट अभिलेखों, ई. पू. 200 ई. में भी है। बेसनगर के 'गरुणध्वज' अभिलेख में वासुदेव को 'देव-देव' कहा गया है। ये प्रमाण सिद्ध करते हैं कि ई. पू. 500 के लगभग उत्तरी एवं मध्य भारत में वासुदेव की पूजा प्रचलित थी।
श्री आर. जी. भण्डारकर कृत 'वैष्णविज्म, शैविज्म' , जहाँ पर वैष्णव सम्प्रदाय एवं इसकी प्राचीनता के विषय में विवेचन उपस्थित किया गया है। यह आश्चर्यजनक है कि कृष्ण जन्माष्टमी पर लिखे गये मध्यकालीन ग्रन्थों में भविष्य, भविष्योत्तर, स्कन्द, विष्णुधर्मोत्तर, नारदीय एवं ब्रह्म वैवर्त पुराणों से उद्धरण तो लिये हैं, किन्तु उन्होंने उस भागवत पुराण को अछूता छोड़ रखा है जो पश्चात्कालीन मध्य एवं वर्तमानकालीन वैष्णवों का 'वेद' माना जाता है। भागवत में कृष्ण जन्म का विवरण संदिग्ध एवं साधारण है। वहाँ पर ऐसा आया है कि समय काल सर्वगुणसम्पन्न एवं शोभन था, दिशाएँ स्वच्छ एवं गगन निर्मल एवं उडुगण युक्त था, वायु सुखस्पर्शी एवं गंधवाही था और जब जनार्दन ने देवकी के गर्भ से जन्म लिया तो अर्धरात्रि थी तथा अन्धकार ने सबको ढक लिया था।


राधा-कृष्ण
भविष्योत्तर पुराण   में कृष्ण द्वारा 'कृष्णजन्माष्टमी व्रत' के बारे में युधिष्ठिर से स्वयं कहलाया गया है–'मैं वासुदेव एवं देवकी से भाद्र कृष्ण अष्टमी को उत्पन्न हुआ था, जबकि सूर्य सिंह राशि में था, चन्द्र वृषभ राशि में था और नक्षत्र रोहिणी था' । जब श्रावण के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को रोहिणी नक्षत्र होता है तो वह तिथि जयन्ती कहलाती है, उस दिन उपवास करने से सभी पाप जो बचपन, युवावस्था, वृद्धावस्था एवं बहुत से पूर्वजन्मों में हुए रहते हैं, कट जाते हैं। इसका फल यह है कि यदि श्रावण कृष्णपक्ष की अष्टमी को रोहिणी हो तो न यह केवल जन्माष्टमी होती है, किन्तु जब श्रावण की कृष्णाष्टमी से रोहिणी संयुक्त हो जाती है तो जयन्ती होती है।

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